लघुकथा- 'महात्मा और चूहा'

चूहा रोज महात्मा जी की कुटिया में घुस जाता था। कभी डर कर महात्मा जी के पीछे छुप जाता। कभी उनके चारों ओर चक्कर लगाता। महात्मा जी को भी उससे प्यार, लगाव हो गया था। एक दिन वह घबराया सा कुटिया में घुसा तो महात्मा ने पूछा- “क्या हुआ?”

चूहा बोला- “यह जीवन भी कोई जीवन है? जहां हर कोई डरा कर चला जाता है। मौत हरदम मंडराती है।”

महात्मा जी उस पर प्रसन्न तो थे ही। कमंडल से अंजलि भर पानी लेकर उसे पर छिटका और कहा- “जा तुझे राजा बनाया। लोकतंत्री बनना। राज धर्म निभाना।”

चूहा राजा बन गया। लोकतंत्री तो बना नहीं। हां,राजसी के लक्षणों से भर गया। जिससे थोड़ा भी खतरा लगता उन्हें समाप्त करवा देता। उसे लगता उसके विकास की दौड़ में 2-4 बिल्ली के बच्चे मर भी गए तो क्या!

उसके चाल,चलन, तुगलकी फैसलों और व्यवहार से विरोध बढ़ने लगा। उसकी कुर्सी डोलने लगी। वह फिर महात्मा की कुटिया में घुसा। घबराया सा बोला- “लोकतंत्री चूहे मेरी कुर्सी कुतरते हैं। गालियां देते हैं। मुझे शक्ति दो। कुछ कपट राजनीति की आज्ञा हो।”

गर्दन झुकाए महात्मा ने, बिना कुछ बोले कमंडल से अंजलि भर पानी ले उस पर फिर से छिटक दिया। चूहे ने मजबूती महसूस की। अब उसे कुर्सी का ज्यादा आनंद आने लगा। जोड़-तोड़ कर विरोधियों से पाला बदलवाया। फेविकोल सा उन्हें कुर्सी पर लगा जमकर चिपक गया। वचन भूल गया। बीती जिंदगी भूल गया। पर डर तो उसके दिमाग के किसी हिस्से में बैठा ही था।

अचानक एक दिन उसे महात्मा की याद आई। घमंड से भरा अपने गुर्गों के कांधों पर पालकी में बैठकर वह महात्मा की झोपड़ी में घुसा। महात्मा के प्रति आदर प्रदर्शन किये बिना ही गुर्गों को आदेश दिया- “मार डालो से इसे अन्यथा यह दूसरे चूहे को मेरे जैसे राजा बना देगा।”

गुर्गें आगे बढ़कर महात्मा को छू पाते उससे पहले ही महात्मा ने कमंडल से अंजलि भर पानी लिया । उस पर छिटक कर बोले- “पहले जैसा बन जा।”

गुर्गों ने देखा डरा एक हुआ चूहा झोपड़ी से बाहर भाग रहा था। राजा गायब था।

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