लघुकथा - जमीन से अलगाव

वे अंतर्मुखी व्यक्ति थे। अपने काम से काम रखते थे। भीड़ में खुद को असहज महसूस करते। इस कारण बहुत ज्यादा सामाजिक नहीं हो पाते। ज्यादा जरूरी होता तो मजबूरी में सामाजिक कामों में भाग लेते। मेहनत से,पेट काट कर बच्चों को पढ़ाया। वे सब अच्छी नौकरी पर लग गये।

इधर वृद्धावस्था के साथ बीमारी की चपेट में पति-पत्नी दोनों आ गए। बच्चे उन्हें अकेला छोड़ना नहीं चाहते थे। अपनी जड़ें, जमीन उनसे छूट नहीं रही थी। लगाव सा था। गांव के नाते-रिश्तेदारों ने भी सुझाया- “बच्चों के पास चले जाओ।अब वे ही ध्यान रखेंगे। यहां रहोगे तो बुढापा बिगड़ जाएगा।”

मजबूरी में भीनी आंखों से गांव छोड़ना पड़ा। बच्चों के पास रहते हुए ही एक दिन उन्होंने शरीर छोड़ दिया।

बच्चों ने गांव में रिश्तेदारों को सूचित किया। रिश्तेदारों का कहना था- “इतनी दूर तो सब नहीं आ सकते। अपनी जन्मभूमि में ही, अपनी माटी मिलना चाहिए। यहां ले आओ।”

बेटे वाहन की व्यवस्था कर शव को गांव में ले गये। वहीं मुखाग्नि दी। बारहवीं के लिए निमंत्रण और खाने की सब तैयारी हो गई। गांव में तब कैटरिंग की सुविधा नहीं थी। खाना परोसने का काम रिश्तेदारों, दोस्तों के द्वारा होता था। एक दिन पहले सब रिश्तेदारों ने यह कह कर हाथ खड़े कर दिए - “तुम्हारे पिताजी ने कभी सामाजिक कामों में भाग नहीं लिया तो फिर हम उनके काम क्यों करें?”

नई जगह। नई स्थितियां। नई परेशानी।

जैसे तैसे हाथ-पांव जोड़कर, भगवान के आसरे काम पूरा करवा बच्चे गंगा नहाये। फिर नौकरी पर चले गए।

उसके बाद उन्होंने गांव की ओर रुख नहीं किया। अपने बच्चों को इन परिस्थितियों से बचाने के लिए देहदान की शपथ ले ली।

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आंखिन देखी,कागद लेखी

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